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देवता: इन्द्र: ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

यस्त॑ इन्द्र म॒हीर॒पः स्त॑भू॒यमा॑न॒ आश॑यत् । नि तं पद्या॑सु शिश्नथः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yas ta indra mahīr apaḥ stabhūyamāna āśayat | ni tam padyāsu śiśnathaḥ ||

पद पाठ

यः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । म॒हीः । अ॒पः । स्त॒भु॒ऽयमा॑नः । आ । अश॑यत् । नि । तम् । पद्या॑सु । शि॒श्न॒थः॒ ॥ ८.६.१६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:16 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:16


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शिव शंकर शर्मा

विघ्नविनाशार्थ परमात्मा की प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे महेन्द्र परमदेव (ते) तेरा (महीः) महान् उपकारी (अपः) जल को (स्तभूयमानः) रोककर (यः) जो विघ्न (आशयत्) सोता हुआ है अर्थात् जगत् में विद्यमान है (तम्) उस जल विद्या तक विघ्न को (पद्यासु) प्रवहणशील जलों में ही (नि+शिश्नथः) अच्छी तरह से सड़ा गला दो ॥१६॥
भावार्थभाषाः - जल सर्व प्राणियों का जीवन है, उसके अभाव से सब स्थावर और जङ्गम सूख जाते हैं, अतः उसके लिये वारंवार प्रार्थना की जाती है ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यः) जो मनुष्य (ते) आपके (महीः, अपः) न्याययुक्त पूज्य कर्म को (स्तभूयमानः) अवरुद्ध करके (आशयत्) स्थित होता है (तम्) उसको (पद्यासु) आचरणयोग्य क्रियाओं की रक्षा करते हुए (नि शिश्नथः) निश्चय हिंसन करते हो ॥१६॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष परमात्मा के न्याययुक्त मार्ग का अतिक्रमण करके चलता है, वह अवश्य दुःख को प्राप्त होता है, इसलिये सुख की कामनावाले पुरुषों का कर्तव्य है कि उसके वेदविहित न्याययुक्तमार्ग से कभी विचलित न हों ॥१६॥
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शिव शंकर शर्मा

विघ्नविनाशाय परमात्मा प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! ते=तव सम्बन्धिनीः। महीः=महत्यः। अपः=जलानि। स्तभूयमानः=स्तम्भयन् अवरुन्धानः सन्। यो विघ्नः। आशयत्=शेते=वर्तते। तं विघ्नम्। पद्यासु=गमनशीलासु अप्सु मध्ये। नि शिश्नथः=न्यर्हिंसीः=नितरां जहि। श्नथिर्हिंसार्थः ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यः) यो जनः (ते) तव (महीः, अपः) पूज्यं कर्म (स्तभूयमानः) स्तम्भयन् (आशयत्) तिष्ठति (तम्) तं जनम् (पद्यासु) गमनार्हासु सत्सु (नि शिश्नथः) निहिनस्ति ॥१६॥